बोधोदय
"। बोधोदय
जाना ही पड़ेगा ।"-
एक छोटी सी नौकरी से गुजारा करनेवाले भाई ने अपनी छोटी बहन को निर्देश दिया।
घर में चार ही प्राणी थे। मां-बेटी और बेटा-बहू। बहू रानी थोड़ा- बहुत पढ़ी लिखी थी। पर बिटिया तो जैसे पढ़ने लिखने के लिए ही धरती पर आईं हुई थी। पर गरीब की बेटी अपनी किस्मत खुद लिखना भी चाहे तो कलम साथ कहां देती है?
बहू घर आई तो बिटिया ब्याहने इधर उधर से दो-चार रिश्ते भी आए। उन्हीं में से एक को भाई ने चुना और लगे हाथ उसकी विदाई भी कर दी। बिटिया तो रो -रो कर बेहाल हो गयी थी। पर कौन उसकी सुनते? बहू तो जैसे सातवें आसमान पर पहुंच गई थी।
"ननद की शादी करवाई है, भाभी कितना सोचती है ?"
पाॅच हजार वाली रिस्पसनिष्ट की नौकरी करने के समय से ही बेटा उसपर फिदा था। बिना वजह फोन कम्पनी वाली आफिस में जाकर टुकुर टुकुर ताड़ ने के साथ साथ इसके उसके हाथ चाकलेट , पान भी भिजवा दिया करता था। जल्द ही प्यार की गाड़ी पटरी पर लाने में कामयाब भी हो गया। दो-चार चमकदार फर्नीचर्स और किचन एप्लायंसेज के साथ उनके घर में ऐसे प्रवेश की जैसे कि गृहलक्ष्मी साक्षात् प्रकट हुई हो।
पर थोड़े ही दिनों में अपनी सही अवतार में दिखाई देने लगी।
शादी के बाद नौकरी तो रही नहीं । इधर कमाऊ बेटा उसके इशारे पर उठक-बैठक लगाता। बहन की पढ़ाई तो बस - बिना वजह रूपए पानी में कौन फेंकता है?
तो शादी करवा दी। भाई को इतना भी सब्र नहीं हुआ कि बहन के लायक लडका ही ढूंढ लेता। पर नहीं । बुढ़ी मां की तो किसी को पड़ी नहीं थी। लड़की को पूछना जरूरी नहीं समझा। किसी भी एक कमाने वाले अधेड़ उम्र वाले से हाथ पीले करने का नतीजा सामने था।
एक दिन सुबह बिटिया रानी सूटकेस लेकर दरवाजे पर दस्तक दे रही थी। उसके बाद से घर के दिवारो ने सुख - शांति का एक पल भी नहीं देखा। उनमें जान होती तो अबतक बुढ़ी मां से कह रहे होते -
"मां जी आपके पति ने तो हमें खून पसीने से सींचा और आप ने प्यार से जिन्दा करवाया। पर ये आपके बच्चें हमें शांति से रहने नहीं देंगे। कृपया हमें यहां से जाने दीजिए। "
आज भी उसी तरह भाई और बहन झगड़ रहे थे । भाई ने अल्टीमेटम दे दिया था कि बहन को पति के साथ उनके घर जाना ही पड़ेगा। पति महाशय को फ़ोन करके आने के लिए कहा भी था। अभी पहुंचे नहीं थे। पर बिटिया तो जैसे पत्थर की बनी हो। इधर भाभी के अलग नखरें।
मां ने कुछ कहना चाहा तो बेटा गरज उठा।
"तुम्हारे लाड़ प्यार का ही नतीजा है ये ! और चढ़ाओ सर पे! एक बार भाई का हाथ सर से हटेगा तो पता चलेगा कि दुनिया में क्या ईज्जत है औरत जात की! पढ़ाई-लिखाई सब धरा का धरा रह जाएगा। आंसू पोंछने के काम आएंगे ये सब कागजात।"
कीड़े परे ऐसे भाई या ऐसे मर्द की सोच पर जो अपनी बहन, बेटी , या किसी भी औरत के लिए ऐसा सोचता हो । लानत है ऐसे लोगों की मानसिकता पर जो सुरक्षा देने के नाम पर उसकी इच्छा-अनिच्छा को पैरों तले कुचल देते हैं।
बुढ़ी मां ने अपने बेटे के सामने आकर कहा -
" बहुत अच्छा लगा बेटा। वैसे तू भूल गया कि तेरी मां भी औरत जात ही है। अब देख एक औरत जात दूसरी औरत जात के लिए तूझ जैसा घिनौना सोच रखने वाले बेटे को इस घर से बेदखल करती है। अभी के अभी निकल जा मेरे घर से। मेरी बेटी अपने घर में रहेगी। वैसे भी तू तो मर्द जात है - दुनिया तेरे इशारों पर तुझे सलाम करतीं हैं। बिटिया दोबारा कालेज में दाखिला लेगी और जो करना चाहती है करेगी। "
एकबार सांस भर कर फिर से बोल उठी -
"और सुन , औरत की इज्जत तेरे जैसों की जिह्वा पर नहीं रहती कि जब तूने चाहा इज्जतदार बना दिया और जब नहीं चाहा तो बेइज्जत कर दिया। मर्द हो या औरत सबको ईज्जत कमाकर ही लेना पड़ता है। "
भला हो ऐसी मां का जो बेटे को उसकी गलतियां गिना सकती है!
बेटा-बहू जाने लगा। बिटिया ने मां को समझाया । भाई को समझाया। पर बात नहीं बनी।
मां -बेटी खूब मेहनत करके रोटी कमाती । घर का एक हिस्सा भाड़े पर दे दी । बिटिया दिन भर खुद पढ़ने लिखने के बाद छोटे बच्चों को पढ़ाती। शादी से छुटकारा ले लिया। अधेड़ ने जल्दी दूसरी शादी कर ली।
दोनों खुश थीं। एक दिन सुना भाई को बेटी हुई । मां ने कहा -
"मुआ अब समझेगा का हुई औरत जात की इज्जत।"
बेटी जानती थी मां की ऐसी अटपटी मुहावरों का अर्थ।
सही में एक सुबह गुड़िया को लेकर दरवाजे पर बेटा-बहू दस्तक दे रहे थे। देर से ही सही उसके दिलो-दिमाग पर मां के शब्दों का असर हुआ तो सही। हमको तो रोज ऐसे बहुत नासमझ मिल जाते है जिनका कभी बोधोदय होगा ही नहीं।
दुलुमणि गोगोई
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